चिपको आंदोलन (Chipko Andolan/ Chipko Movement)  के बारे में:-

पेड़ मनुष्य जीवन का आधार है और वह हमारा सच्चा मित्र है यह बात सिद्ध करता है  चिपको आंदोलन (Chipko Andolan/ Chipko Movement)।  पेड़ों  को कटने से बचाने के लिए 1970 के दशक  में उत्तराखण्ड के वनों में शांत और अहिंसक विरोध प्रदर्शन के रूप चिपको आंदोलन देखा गया. इस आंदोलन का  मूल उद्देश्य व्यावसाय के लिए हो रही वनों की कटाई को रोकना था और इसे रोकने के लिए महिलाएं वृक्षों से चिपककर खड़ी हो गई थीं. चिपको आंदोलन (Chipko Andolan/ Chipko Movement)  का मूल केंद्र चमोली जिले में बसा  रैणी गांव था जो भारत-तिब्बत सीमा पर जोशीमठ से लगभग 48 किलोमीटर दूर ऋषिगंगा और विष्णुगंगा के संगम पर बसा है। वन विभाग ने इस क्षेत्र में अंगू के लगभग ढाई हजार पेड़ साइमंड कंपनी (जो की खेल-कूद के सामान बनाया करती थी) को ठेके पर दिये थे जिनकी लकड़ी से खेल का  सामान तैयार किया जाना था । इसकी खबर मिलते ही चंडी प्रसाद भट्ट के नेतृत्व में 14 फरवरी, 1974 को गांव में एक सभा की गई जिसमें स्थानीय लोगों को बताया  गया कि यदि पेड़ गिराये गये, तो हमारा अस्तित्व खतरे में पड जायेगा। पेड़ों के होने से हमारी चारे, जलावन और जड़ी-बूटियों की जरूरते पूरी होती हैं, और यह  मिट्टी का क्षरण भी रोकते हैं। इस सभा के बाद रैणी गांव के लोगों ने जुलूस निकले और सरकार को चेताने का प्रयास किया। यह बात जब सरकार को पता लगी तो सरकार ने घोषणा की कि चमोली में सेना के लिए जिन लोगों के खेतों को अधिग्रहण किया गया है , वह अपना मुआवजा  जिला मुख्यालय, गोपेश्वर आ कर ले जाएं। गांव के पुरूष मुआवजा लेने चले गए। दूसरी ओर सरकार ने आंदोलनकारियों को बातचीत के लिए भी  बुला लिया। इस मौके का लाभ उठाते हुए साइमंड कंपनी के ठेकेदार और वन अधिकारी पेड़ काटने के लिए जंगल में घुस गये। अब रैणी गांव में सिर्फ महिलायें ही बची थीं। लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। बिना जान की परवाह किये श्रीमती गौरादेवी के नेतृत्व में 27 औरतों ने चिपको-आंदोलन शुरू कर दिया। वहां मौजूद महिलाओं ने पेड़ों से चिपककर पेड़ काटने आये ठेकेदार व वनविभाग के कर्मियों से कहा  कि पहले हमें काटो फिर इन पेड़ों को भी काट लेना. अंतत: पेड़ काटने आए लोगों को वहां से जाना पड़ा। चिपको आंदोलन(Chipko Movement) को एक महिला आंदोलन के रूप में जाना जाता है क्योंकि इसके अधिकांश कार्यकर्ताओं में महिलाएं ही थीं तथा साथ ही यह आंदोलन नारीवादी गुणों पर आधारित था।  इस प्रकार 26 मार्च, 1974 को स्वतंत्र भारत के प्रथम पर्यावरण आंदोलन की नींव रखी गई थी । यह आंदोलन गांधीवादी तरीके से संचालित किया गया था अर्थात सत्याग्रह व अहिंसक माध्यम से विरोध प्रदर्शन किया गया. आंदोलनकारी पेड़ को कटने से बचने के लिए उस पर लिपट जाते थे. इस आंदोलन का नेतृत्व सुंदरलाल बहुगुणा ने किया था.

चिपको आंदोलन(Chipko Andolan/Chipko Movement) ने तत्कालीन केंद्र सरकार का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया  और  आंदोलन को जोर पकड़ते देख यह निर्णय लिया गया कि अगले 15 सालों तक उत्तर प्रदेश के हिमालय पर्वतमाला में एक भी पेड़ नहीं काटे जाएंगे. चिपको आंदोलन(Chipko Movement) का प्रभाव उत्तराखंड (तब उत्त्त प्रदेश का हिस्सा था) से निकलकर पूरे देश पर होने लगा था . इसी आंदोलन से प्रभावित होकर कर्नाटक में पेड़ों को बचाने के लिए एप्पिको नाम से आंदोलन शुरू किया गया. एप्पिको आंदोलन के नेता पांडुरंग हेगड़े थे।

 

"चिपको"की अवधारणा:-

वस्तुतः "चिपको"की अवधारणा 1931 में आई जब जोधपुर के राजा के वन काटने के आदेश का विरोध विश्नोई समाज की एक महिला "अमृता देवी " ने किया। अमृता देवी भी पेड़ को कटने से बचने के लिए पेड़ पर लिपट गयी थी, लेकिन दुखद बात यह रही की जोधपुर के राजा ने अमृता देवी समेत पेड़ को काटने का आदेश दे दिया। इस प्रकार विश्नोई समाज के सैकड़ों लोगों ने पेड़ों को बचने के लिए अपने प्राणों का बलिदान दे दिया था. भारत सरकार द्वारा अमृता देवी के नाम पर "अमृता देवी विश्नोई वन्यजीव संरक्षण पुरस्कार" शुरू किया गया. 1980 के दशक में भारत सरकार ने सयुक्त वन प्रबंधन नीति लागू की. इसका उद्देश्य  स्थानीय समुदाय के सहयोग  से वन प्रबंधन को प्रोत्साहन देना था.

 

2020 में रैणी गांव में बाढ़

जोशीमठ से करीब 48 किलोमीटर की दूरी पर स्थित रैणी गांव में 7 फरवरी 2020  को ऋषि गंगा में आई बाढ़ के बाद रैणी गांव भूस्खलन की चपेट में आ गया था। गांव के निचले हिस्से और नीती घाटी की ओर से भूस्खलन शुरू हो गया था और संरक्षित प्रजाति के हजारों पेड़ बाढ़ की भेंट चढ़ गए थे। 14 जून को भारी बारिश के दौरान गांव के निचले हिस्से में मलारी हाईवे का करीब 40 मीटर हिस्सा टूटकर धौली गंगा में समा गया था।